उठ चला है टूटकर वो आज इस हुनर से फिर
जैसे कहीं डूबी एक कश्ती तैर निकली है।।
है हवा भी सर्द अब, हर आँख में नमी सी है
आज फिर से महफ़िल में तेरी बात निकली है।।
सूखी टहनियां भी हैं, ज़िंदा से दरख्तों में
बोलती है आग सी एक जंगलों से निकली है।।
खुद को जो समझते थे, रंगबाज़ इस ज़माने में
कब्रों में पड़े हैं जब जान सबकी निकली है।।
था किसी का सौदा जो दिल को कैद रखता था
उसको आज तोड़कर 'दुआ' किसी की निकली है।।
शक कहीं पे हो तो आज़मा लो हर सवालों से
है ज़बाँ गवाह जो कभी झूठी बात निकली है??
-स्वप्निल जोसफ
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