सवालों के आइनों में मुझे एक जवाब की तलाश है
खुली आँख से देखने को एक ख्वाब की तलाश है
यूँ भटकना भी इक शौक है मेरे हज़ारों शौक में से
मिल जाए कहीं मुझे अब तेरे आदाब की तलाश है
ये थकान समेटने में कितने दिन गुज़र गए मेरे
तेरी मुस्कान की खातिर मुझे गुलाब की तलाश है
घने अंधेरों ने घेरा है इस दौर के इंसानों को
बहुत हुई अब रात मुझे आफताब* की तलाश है
होश में रहकर भी अब ये ही समझ में आया है
बहुत हुए बदनाम बस, अब शराब की तलाश है
-स्वप्निल जोसफ
(*आफताब - सूर्य की रौशनी)
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