Friday, May 6, 2016

छोड़ आया हूँ

काफिले कहीं, कहीं भूले ज़माने छोड़ आया हूँ
मैं मेरे झूठे ख्यालों के आशियाने छोड़ आया हूँ

जो थकान की नींद में सुकून देता था मुझे
मैं वो बिस्तर-तकिया-सिरहाने छोड़ आया हूँ

रेत में उँगलियों से नाम लिखने के शौक को
कुछ उछलती लहरों के सहारे छोड़ आया हूँ

अभी हारा नहीं हूँ मैं इस इश्क़ के खेल में
जीती हुई बाज़ी हार के बहाने छोड़ आया हूँ

राह से बहकाने में जिसका कोई जवाब ही नहीं है
मैं ऐसी ही किसीकी जादुई निगाहें छोड़ आया हूँ

संजीदा ग़ज़लें लिखना भी कभी पेशा था मेरा
एक ज़िद्द के कारण मैं अधूरे तराने छोड़ आया हूँ

-स्वप्निल जोसफ

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