Sunday, August 28, 2016

कठिन है

किसी मुसाफिर को सही राह दिखाना कठिन है
रुककर के अब मेरा शहर से फिर जाना कठिन है

कभी कातिल भी ठहरे थे मेरे घर में आकर
अब इस अदालत से ज़ुर्म छुपाना कठिन है

शराफत का ज़माना कुछ और था जनाब पहले
हर किसीको अब सब सच बताना कठिन है

एक बेसब्र सा आलम रुका है मेरे नसीब में
पहले जैसे मज़बूत रिश्ते निभाना कठिन है

कोई तो बात है जो तुझे काफ़िर बना रही है
खुदा के सजदे में तेरा सर झुकाना कठिन है

फासले रखने में भी मुझे एक सुकूँ सा मिला है
वरना, यूँ ही किसी से बेवजह मुकर जाना कठिन है

क्यों ना दिल की जगह अब दिमाग लगाया जाए
अपने आप को अब झूठे ख्वाब दिखाना कठिन है

-स्वप्निल जोसफ

No comments:

Post a Comment